प्यार जो मिला भी और नहीं भी भाग :- १५
भाग :- १५
पंद्रहवां अध्याय शुरू 👇
हम सभी के जीवन में बहुत सारी ऐसी बातें होती हैं जो हमारे जीवन में सदियों से हमारे साथ चलती ही रहती है।
ऐसे ही बातों में से एक बात है किसी जाते हुए को पीछे से टोकना जिसके लिए उस वक्त ऋषभ की माॅं को अपने पति के द्वारा वह सब कुछ सुनना पड़ा जो वह शादी की पहली रात से ही सुन रही थी। गौर वर्ण के नारायण ठाकुर को तीखे नैन - नक्श वाली रेणुका पत्नी के रूप में इसलिए पसंद नहीं थी क्योंकि वह उनके स्वयं की तरह गोरी नहीं थी। गेहुआ रंग ऋषभ की माॅं रेणुका के लिए एक अभिशाप बनकर ही उसकी जिंदगी में आया था। उसके इसी रंग ने उसे अपने पति के प्यार से वंचित कर रखा था। ना तो उसे अभी तक पति का प्यार ही मिल पाया है और ना ही वह मान -सम्मान ही जो एक पति अपने बच्चों की माॅं को देता है।
"मैं तो सिर्फ यह कहने के लिए यहां पर आई थी कि जहां भी जाना हो खाना खाकर जाए। सुबह से भूखा है कुछ नहीं खाया उसने, मुझे बनाने के लिए कहा था, मैं बना ही रही थी और जब बन गया है खाना तो वह जा रहा है।" अपने पति के सारी बातें सुनने के बाद ऑंखों में ऑंसू लिए ऋषभ की माॅं रेणुका इतना ही बोल पाई।
"देख रहा हूॅं मैं, आजकल तुम्हारी जुबान भी खुलने लगी है और सब कुछ समझ भी रहा हूॅं। अपने इसी नालायक बड़े बेटे की शह पर तुम ऐसा कर रही हो। तुममें इतनी हिम्मत तो नही थी कि मेरे सामने अपनी जुबान खोल सको। " गरजती आवाज में नारायण ठाकुर ने अपनी पत्नी रेणुका से कहा।
"क्या हर समय अपनी लुगाई को सुनाता रहता है। १८ साल से देख रही हूॅं इसके पीछे ही पड़ा है। कभी तो प्यार के दो शब्द भी बोल लिया कर अपने बीवी और बाल - बच्चों से।" अचानक से अपनी माॅं की आवाज सुनकर नारायण सिंह चुप हो गया। उसकी माॅं भी यह बात जानती थी कि भले ही वह एक अच्छा पति, अच्छा पिता ना बन पाया हो लेकिन एक अच्छा बेटा वह जरूर है। संघर्ष के दिनों में उसके उसी बेटे ने उसका साथ तब दिया था जब कम उम्र में ही उसके पति घर - परिवार, जमीन - जायदाद और बच्चों की सारी जिम्मेदारी छोड़कर भगवान को प्यारे हो गए थे। दो बेटियों और एक बेटे की माॅं उस समय अपने आप को असहाय महसूस कर रही थी जब उसकी जिंदगी में ये अनहोनी अचानक से घटित हुई थी।
कम उम्र में ही नारायण सिंह ने बेटे होने का फर्ज निभाना शुरू कर दिया था। शायद! यह उसकी माॅं के पिछले जन्म के पुण्य कर्म ही थे जिसके कारण उसकी तीनों संतानों में सबसे छोटी संतान नारायण सिंह होते हुए भी घर की जिम्मेदारी कम उम्र में ही उसने अपने कंधे पर उठा ली थी। अपनी माॅं के द्वारा निभाए जाने वाली हर जिम्मेदारी में बेटा उसके साथ था। अपनी माॅं के साथ कदम से कदम मिलाकर चल भी रहा था और साथ ही सबल भी बन रहा था।
कहते हैं ना कि समय का चक्र वापस वहीं पर आ जाता है जहां से वह शुरू हुआ था। नारायण सिंह और उसके परिवार पर विपत्तियों का जो पहाड़ टूटा था समय के साथ माॅं - बेटे ने पूरी हिम्मत के साथ उसका सामना किया था और उस से निकल कर दिखाया भी था।
सब कुछ अच्छा चल रहा था। सिर्फ एक गलती ने घर का माहौल ही बिगाड़ दिया था। एक माॅं ने अपने बेटे के जज्बात, उसकी ख्वाहिशों को समझा ही नहीं, बस अपनी मनमानी की ऐसी सोच बेटे के मन में उस दिन आ गई जिस दिन अपनी पसंद की लड़की के बारे में बताने के बावजूद भी माॅं ने उसका साथ ये कह कर नहीं दिया कि इस लड़की की ऑंखो में मुझे परिवार को एक साथ बांधकर रखने की ललक दिखाई नहीं पड़ती।
दिल टूटा तो बहुत कुछ टूट गया। नहीं टूटा तो माॅं - बेटे का वह संबंध जिस को निभाने का प्रण नारायण ठाकुर ने स्वयं से लिया था। माॅं के मन में एक बात और थी कि यदि बेटे की पसंद की लड़की वह बहू के रूप में ले आती है तो उसका अपने ही घर में स्वयं का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। प्रेम तो अंधा होता है और अंधे को कहां दिखता है कि वह किसके साथ क्या कर रहा है? वों तो प्रेम में बंध कर सब कुछ भूल जाता है। कहीं ये अंधा प्रेम एक बेटे को अपनी माॅं को भूलने के लिए विवश ना कर दे? एक स्वार्थी मन के द्वारा कही गई बातें माॅं ने मान ली और ले आई अपनी मनपसंद बहू।
माॅं ने बेटे को हर तरह से समझाने की कोशिश की लेकिन दिल में जो रूह की तरह बसा हो उसे निकालना इतना आसान भी नहीं होता। 'समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा' ये ऐसा शब्द है जो हर टूटती आशाओं और उम्मीदों के लिए जीवनदान बनकर उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। नारायण ठाकुर की पत्नी रेणुका के लिए यें शब्द पत्थर की लकीर बन गए थे और उसने इसे पूरी करने में अपनी तरफ से हर कोशिश की लेकिन वह कामयाब नही हो पाई। बार-बार घीसते रहने से भी पत्थर पर निशान पड़ जाते हैं लेकिन नारायण ठाकुर का दिल पत्थर से भी ज्यादा सख्त हो चुका था जिस पर १८ साल के बाद भी कोई निशान नहीं पड़ा।
बीते १८ सालों के हर कमजोर लम्हों में रेणुका अपने पति के करीब तो आई लेकिन उन कमजोर लम्हों का प्यार सिर्फ उसके शरीर को मिला, ना तो उसके नाम को ही और ना ही उसके चेहरे को। शराब के नशे में नारायण ठाकुर देर रात जब आते रेणुका के कंधों का सहारा उन्हें अवश्य मिलता।जिस दिन वह पूरी तरह अपना होश खो बैठते अपनी पत्नी रेणुका में अपनी प्रेमिका के चेहरे को ढूंढने लगते। रेणुका को देखते ही प्रेमिका के नाम का संबोधन होशोहवास खो चुके नारायण ठाकुर के मुंह पर आ जाता और उसके बाद रेणुका अपने पति के प्यार का ऐसा रूप देखती जिसे देखने की लालसा उसकी शादी के बाद के पहले दिन से ही थी।
पति का प्यार पाना हर पतिव्रता औरत की ख्वाहिश ही नहीं उसका हक भी होता है। रेणुका को उसका हक भी दूसरे के नाम और उसके चेहरे से ही मिल रहा था। आनंद की चरम सीमा पा कर भी वह असंतुष्ट ही रही थी क्योंकि ऐसी संतुष्टि वह नहीं चाहती थी। रेणुका क्या कोई भी औरत अपने पति के मुख से अपनी प्रेमिका के नाम को सुनकर ऐसा सुख कदापि नहीं पाना चाहेगी लेकिन ऐसा करना उस के लिए मजबूरी थी। अपने पति से बेइंतेहा प्यार करने वाली रेणुका अपने हर गिरते ऑंसूओं को यें तसल्ली दिया करती थी कि कम से कम इतना तो उसके पति ने उसे दिया जिसका एहसास उसके पति को एक -न -एक दिन अवश्य ही होगा लेकिन आज तक नारायण सिंह को इसका एहसास तक नहीं हुआ। शराब के नशे को अपने दोनों बेटों के जन्म की वजह बताकर वह हमेशा ही रेणुका के जज्बातों पर ऐसा प्रहार करता जिससे रेणुका अंदर से टूटती ही नहीं बल्कि लहूलुहान हो जाती।
ऋषभ के माता-पिता से जुड़ी और भी बातें जानने के लिए जुड़े रहे अगले भाग से।
क्रमशः
गुॅंजन कमल 💓💞💗
# उपन्यास लेखन प्रतियोगिता
Pallavi
22-Sep-2022 09:26 PM
Very nice
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Abeer
21-Sep-2022 08:13 PM
Nice post
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Barsha🖤👑
21-Sep-2022 05:17 PM
Beautiful
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